Acharya Ramchandra Shukla ki Jivani in Hindi

आचार्य रामचंद्र शुक्ल की जीवनी हिंदी में ( Acharya Ramchandra Shukla  ki Jivani in Hindi )

आचार्य रामचंद्र शुक्ल की जीवनी हिंदी में (Acharya Ramchandra Shukla ki Jivani in Hindi):-

अचार्य ' रामचन्द्र शुक्ल का जन्म सन् 1874 ई ० में बस्ती जिले के अगोना नामक ग्राम में हुआ था । इनके पिता का नाम चन्द्रबली शुक्ल था । एफ 0 ए 0 ( इण्टरमीडिएट ) में आने पर इनकी शिक्षा बीच में छूट गई । इन्होंने सरकारी नौकरी कर ली : किन्तु स्वाभिमान के कारण सरकारी नौकरी छोड़कर ये मिर्जापुर के ' मिशन स्कूल ' में चित्रकला के अध्यापक हो गए । स्वाध्याय से इन्होंने हिन्दी , अंग्रेजी , संस्कृत , बांग्ला , उर्दू , फारसी आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था । आनन्द - कादम्बिनी ' नामक पत्रिका में इनकी रचनाएँ प्रकाशित होती थीं । बाद में ' नागरी प्रचारिणी सभा , काशी ' से सम्बद्ध होकर इन्होंने ' शब्द - सागर ' के सहायक - सम्पादक का कार्यभार सँभाला । इनकी गिनती उच्चकोटि के विद्वानों में होने लगी थी । कुछ समय पश्चात् ये काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यापक नियुक्त किए गए । वहाँ बाबू श्यामसुन्दरदास के बाद ये हिन्दी - विभाग के अध्यक्ष हो गए । शुक्लजी ने लेखन का शुभारम्भ कविता से किया था । नाटक लिखने की ओर भी इनकी रुचि रही , परन्तु इनकी प्रखर बुद्धि इन्हें निबन्ध - लेखन और आलोचना की ओर ले गई । इन क्षेत्रों में इन्होंने जो सर्वोपरि स्थान बनाया , वह आज तक बना हुआ है । जीवन के अन्तिम क्षणों तक साहित्य की साधना में संलग्न हिन्दी का यह प्रकाण्ड पण्डित सन् 1941 ई ० में स्वर्ग सिधार गया । गया । शुक्लजी आजीवन साहित्य - साधना में व्यस्त रहे । इनकी साहित्यिक सेवाओं के फलस्वरूप ही हिन्दी साहित्य को विश्व - साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो सका । यद्यपि शुक्लजी का साहित्यिक जीवन काव्य - रचना से प्रारम्भ हुआ था , फिर भी इस क्षेत्र में ये अपनी प्रतिभा का अधिक उपयोग नहीं कर सके । इन्होंने गद्य के क्षेत्र में ही अधिक कार्य किया और एक सम्पादक , निबन्धकार , अनुवादक एवं आलोचक के रूप में अपूर्व ख्याति अर्जित की । शुक्लजी ने ' नागरी प्रचारिणी पत्रिका ' और ' कादम्बिनी ' जैसी सुविख्यात पत्रिकाओं के साथ - साथ हिन्दी शब्द - सागर ' का सम्पादन भी किया । एक निबन्ध लेखक के रूप में इन्होंने अपनी अद्वितीय प्रतिभा का परिचय दिया । हिन्दी साहित्य में इनके द्वारा लिखे हुए साहित्यिक एवं मनोविकार सम्बन्धी निबन्धों का अपना विशिष्ट महत्त्व है । इन्होंने शैक्षिक , दार्शनिक , ऐतिहासिक , सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विषयों से सम्बन्धित कृतियों का अनुवाद भी किया । एक आलोचक के रूप में भी शुक्लजी ने हिन्दी साहित्य की बहुमूल्य सेवा की । इन्होंने अपनी महत्त्वपूर्ण आलोचनात्मक कृतियों के द्वारा आलोचना के क्षेत्र में युगान्तर उपस्थित किया और एक नवीन आलोचना - पद्धति का विकास किया ।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का सृजन - क्षेत्र अत्यन्त व्यापक हैं । कविता , नाटक , कहानी , निबन्ध , आलोचना तथा साहित्य के इतिहास - लेखन के साथ - साथ ग्रन्थ सम्पादन में भी इन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय प्रस्तुत किया ! शुक्लजी की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं 

निबन्ध शुक्लजी ने भावप्रधान तथा समीक्षात्मक दोनों प्रकार के निबन्धों की रचना की है । इनके निबन्ध - संग्रह ' चिन्तामणि ' तथा विचारवीथी नाम से प्रकाशित हुए । इनके निबन्धों में सूक्ष्म दृष्टि , पाण्डित्य एवं गम्भीरता के दर्शन होते हैं । 

आलोचना- शुक्लजी आलोचना के सम्राट थे । इन्होंने सैद्धान्तिक और व्यावहारिक आलोचनाएँ लिखीं । रसमीमांसा , त्रिवेणी सूर , तुलसी और जायसी पर विस्तृत आलोचनाएँ ) तथा सूरदास आदि इनके आलोचना ग्रन्थ हैं ।


इतिहास- शुक्लजी ने विभिन्न युगों की प्रमुख प्रवृत्तियों के आधार पर हिन्दी के विकास का एक प्रामाणिक इतिहास लिखा । इनका हिन्दी - साहित्य का इतिहास हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ इतिहास ग्रन्थ है । 

सम्पादन -- शुक्लजी ने ' तुलसी ग्रन्थावली ' , ' जायसी ग्रन्थावली ' , ' हिन्दी - शब्द - सागर ' , ' नागरी प्रचारिणी पत्रिका ' , ' भ्रमरगीत सार ' तथा ' आनन्द कादम्बिनी ' का कुशल सम्पादन किया । 

इनके अतिरिक्त शुक्लजी ने अभिमन्यु वध तथा ग्यारह वर्ष का समय ' शीर्षक कविताएँ भी लिखी तथा अन्य भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद भी किए । भाषा पर शुक्लजी का पूर्ण अधिकार था । इनकी सभी रचनाओं में शुद्ध साहित्यिक भाषा का प्रयोग हुआ है । इनकी परिष्कृत भाषा में संस्कृत की तत्सम शब्दावली की प्रधानता है , किन्तु उसमें स्पष्टता भी विद्यमान है । शुक्लजी की भाषा का दूसरा रूप अधिक सरल और व्यावहारिक है । इसमें संस्कृतनिष्ठ भाषा के स्थान पर हिन्दी की प्रचलित शब्दावली का प्रयोग हुआ है । यत्र - तत्र उर्दू , फारसी और अंग्रेजी के शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं । शुक्लजी ने ' घिन ' , ' ठीकरा ' , ' बाँह ' , थप्पड़ जैसे ग्रामीण शब्दों का प्रयोग भी किया है । साथ ही मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग से भाषा में लोकवाणी की जीवनी - शक्ति भर दी है । वातें बनाना ' , ' काँटों पर चलना ' , ' पेट फूलना ' , हथकण्डे दिखाना ' , ' नौ दिन चले अढाई कोस ' आदि मुहावरों तथा लोकोक्तियों के प्रयोग इसके प्रमाण हैं । इस प्रकार शुक्लजी का शब्द - भण्डार बहुत व्यापक है । इनकी भाषा बड़ी समर्थ है । भाषा का आवश्यकतानुसार प्रयोग करने में शुक्लजी सिद्धहस्त थे । शुक्लजी की शैली विवेचनात्मक और संयत है । सामान्यतः ये बात को सूत्र रूप में कहकर उसे उदाहरणों द्वारा समझाते हुए चलते हैं । इसलिए इनकी शैली निगमन शैली कहलाती है । इनकी रचनाओं में प्रायः निम्नलिखित शौलियो के दर्शन होते हैं

वर्णनात्मक शैली - मूर्त विषयों का प्रतिपादन करते समय यह शैली अपनाई गई है । सरलता और स्पष्टता इस शैली की विशेषताएँ है । इसकी भाषा प्रसंग के अनुसार कहीं सरल और कहीं गम्भीर है । वाक्य प्रायः छोटे हैं । 

विवेचनात्मक शैली-- यह शुक्लजी की प्रमुख शैली है । इनके निबन्धों में इसी शैली का प्रयोग हुआ है । इस औली में वैधारिकता और गम्भीरता है तथा वाक्य प्रायः लम्बे हो गए हैं । चिन्तन की गहनता के कारण कही - कहीं लिष्टता और बोझिलता भी आ गई है , पर शुक्लजो ने सारांश यह है ' , ' तात्पर्य यह है आदि वाक्यों के माध्यम से अपनी बात को समझाने का पूरा प्रयास किया है । 

व्याख्यात्मक शैली – शुफलजी शिक्षक थे ; अतः कठिन विषयों को स्पष्ट रूप से समझाने के लिए इन्होंने स्थान - स्थान पर व्याख्यात्मक शैली का प्रयोग किया है । इस शैली में ये अपने वर्य - विषय की व्याख्या करते । हैं . इसीलिए इस शैली में भाषा का सरल रूप ही देखने को मिलता है । 

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