Jaishankar(जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय इन हिंदी) Prasad ka Jivan Parichay in Hindi

जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय इन हिंदी ( Jaishankar Prasad ka Jivan Parichay in Hindi )

Jaishankar Prasad ka Jivan Parichay in Hindi :-

Jaishankar Prasad ka Jivan Parichay in Hindi

जयशंकर प्रसाद का जन्म   :-  30 जनवरी 1890

जन्मस्थान (Birthplace) :- वाराणसी, उत्तर प्रदेश

मृत्यु ( death )  :-  15 नवंबर, वर्ष 1937 (आयु- 48 वर्ष)

मृत्यु स्थान (Deathplace) :- वाराणसी, उत्तर प्रदेश

विवाह (Wife) पहली पत्नी :- विंध्यवाटिनी, दूसरी पत्नी - कमला देवी         

पुत्र ( Son ) :- रत्नशंकर

कर्म-क्षेत्र (Occupation) :- उपन्यासकार, नाटककार, कवि

मुख्य रचनाएं (Poem) :- चित्राधार, कामायनी, आँसू, लहर, झरना, एक घूंट, विशाख, अजातशत्रु, आकाशदीप,आँधी, ध्रुवस्वामिनी, तितली और कंकाल

जयशंकरप्रसाद बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे । कविता , कहानी , नाटक , उपन्यास और निबन्ध आदि सभी क्षेत्रों में इनकी प्रतिभा के दर्शन होते हैं । निरन्तर दुःख और चिन्ताओं से जूझते हुए ये इस संसार से विदा हो गए , परन्तु इन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से हिन्दी - साहित्य - जगत् को सदैव के लिए आलोकित कर दिया । सुविख्यात साहित्यकार रमेशचन्द्र शाह ने जयशंकरप्रसाद के सम्बन्ध में लिखा है , " प्रसाद का दर्शन भारतीय इतिहास प्रवाह में अर्जित , गँवाई गई और फिर से प्राप्त नैतिक व सौन्दर्यात्मक तथा व्यावहारिक व रहस्यात्मक अन्तर्दृष्टियों का समन्वय करने का साहित्यिक प्रयास है । उनका सम्पूर्ण कथा - साहित्य एवं नाट्यसाहित्य गहरे मनोवैज्ञानिक यथार्थवाद की नींव पर खड़ा है "।

प्रसादजी का जन्म काशी के ' सुँघनी साहू नाम के प्रसिद्ध वैश्य परिवार में सन् 30 जनवरी 1890 ई ० में हुआ था । प्रसादजी के पितामह का नाम शिवरत्न साहू और पिता का नाम देवीप्रसाद था । प्रसादजी के पितामह शिव के परमभक्त और दयालु थे । इनके पिता भी अत्यधिक उदार और साहित्य - प्रेमी थे । प्रसादजी का बाल्यकाल सुख के साथ व्यतीत हुआ । इन्होंने बाल्यावस्था में ही अपनी माता के साथ धाराक्षेत्र , ओंकारेश्वर , पुष्कर , उज्जैन और ब्रज आदि तीर्थों की यात्रा की । अमरकण्टक पर्वत - श्रेणियों के बीच , नर्मदा में नाव के द्वारा भी इन्होंने यात्रा की । यात्रा से लौटने के पश्चात् प्रसादजी के पिता का स्वर्गवास हो गया । पिता की मृत्यु के चार वर्ष पश्चात् इनकी माता भी उन्हें संसार में अकेला छोड़कर चल बसीं । प्रसादजी पालन - पोषण और शिक्षा - दीक्षा का प्रबन्ध उनके बड़े भाई शम्भूरत्नजी ने किया । सर्वप्रथम प्रसादजी का नाम ' क्वींस कॉलेज में लिखवाया गया , लेकिन स्कूल की पढ़ाई में इनका मन न लगाः इसलिए इनकी शिक्षा का प्रबन्ध घर पर ही किया गया । घर पर ही प्रसादजी योग्य शिक्षकों से अंग्रेजी और संस्कृत का अध्ययन करने लगे । प्रसादजी को प्रारम्भ से ही साहित्य के प्रति अनुराग था । ये प्रायः साहित्यिक पुस्तकें पढ़ा करते थे और अवसर मिलने पर कविता भी किया करते थे ।

पहले तो इनके भाई इनकी काव्य - रचना में बाधा डालते रहे , परन्तु जब उन्होंने देखा कि प्रसादजी का मन काव्य - रचना में अधिक लगता है , तब उन्होंने इसकी पूरी स्वतन्त्रता दे दी । प्रसादजी स्वतन्त्र रूप से काव्य - रचना के मार्ग पर बढ़ने लगे । इन्हीं दिनों इनके बड़े भाई शम्भूरत्नजी का भी स्वर्गवास हो गया । इससे प्रसादजी के हृदय को बहुत गहरा आघात लगा । इनकी आर्थिक स्थिति बिगड़ गई तथा व्यापार भी समाप्त हो गया । पिताजी के समय से ही इन पर ऋण - भार चला आ रहा था । ऋण से मुक्ति पाने के लिए इन्होंने अपनी सम्पूर्ण पैतृक सम्पत्ति बेच दी । ऋण के भार से इन्हें मुक्ति तो मिल गई , परन्तु इनका जीवन संघर्षों और झंझावातों में ही चक्कर खाता रहा । यद्यपि प्रसादजी बड़े संयमी थे , किन्तु संघर्ष और चिन्ताओं के कारण इनका स्वास्थ्य खराब हो गया ।

इन्हें यक्ष्मा रोग ने धर - दबोचा । इस रोग से मुक्ति पाने के लिए इन्होंने पूरी कोशिश की , किन्तु सन् 1937 ई ० की 15 नवम्बर को रोग ने इनके शरीर पर अपना पूर्ण अधिकार कर लिया और ये सदा के लिए इस संसार से विदा हो गए । प्रसादजी में साहित्य - सृजन की प्रतिभा जन्मजात विद्यमान थी । अपने अल्प जीवनकाल में इन्होंने जो कुछ भी लिखा , वह हिन्दी - साहित्य की अमूल्य निधि है । नाटक , कहानी , उपन्यास , निबन्ध और काव्य के क्षेत्र में इन्होंने अपनी विलक्षण साहित्यिक योग्यता का परिचय दिया । ' कामायनी ' जैसे विश्व - स्तरीय महाकाव्य की रचना करके प्रसादजी ने हिन्दी - साहित्य को अमर कर दिया । इन्होंने काव्य , साहित्य , कला आदि विषयों पर अनेक महत्त्वपूर्ण निबन्ध लिखे तथा कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में भी कई अद्वितीय रचनाओं का सृजन किया । इनकी रचनाओं में भारतीय एवं पाश्चात्य विचारधाराओं की तुलनात्मक समीक्षा और आदर्श व यथार्थ का अनुपम समन्वय देखने को मिलता है । प्रसादजी ने अपनी रचनाओं में संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग अधिक किया ।

नाटक के क्षेत्र में इनके अभिनव योगदान के फलस्वरूप नाटक विधा में प्रसाद युग ’ का सूत्रपात हुआ । विषयवस्तु एवं शिल्प की दृष्टि से इन्होंने नाटकों को नवीन दिशा दी । भारतीय संस्कृति , राष्ट्रीय भावना , भारत के अतीतकालीन गौरव आदि पर आधारित ' चन्द्रगुप्त ' , ' स्कन्दगुप्त ' और ध्रुवस्वामिनी जैसे प्रसाद - रचित नाटक विश्वस्तरीय साहित्य में अपना बेजोड़ स्थान रखते हैं । काव्य के क्षेत्र में इन्होंने अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय देते हुए हिन्दी - काव्य को नए आयाम दिए । ये छायावादी काव्यधारा के प्रवर्तक कवि थे । प्रसादजी हिन्दी - साहित्य के स्वनामधन्य रत्न हैं । इन्होंने काव्य , कहानी , उपन्यास , नाटक सभी विधाओं में हिन्दी - साहित्य को समृद्ध किया । इनकी प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित है काव्य - आँसू , कामायनी , चित्राधार , लहर और झरना । कहानी - आँधी , इन्द्रजाल , छाया , प्रतिध्वनि आदि । उपन्यास पास / तितली , कंकाल , इरावती । नाटक- सज्जन , कल्याणी - परिणय , चन्द्रगुप्त , स्कन्दगुप्त , अजातशत्रु , प्रायश्चित्त , जनमेजय का नागयज्ञ , विशाख , ध्रुवेस्वामिनी । निबन्ध / -काव्यकला एवं अन्य निबन्ध । जिस प्रकार प्रसादजी के साहित्य में विविधता है , उसी प्रकार उनकी भाषा ने भी कई स्वरूप धारण किए हैं । उनकी भाषा का स्वरूप विषयों के अनुसार ही गठित प्रसादजी ने अपनी भाषा का श्रृंगार संस्कृत के तत्सम शब्दों से किया है । भावमयता उनकी भाषा की प्रधान विशेषता है । भावों और विचारों के अनुकूल शब्द उनकी भाषा में सहज रूप से आ गए हैं । प्रसादजी की भाषा में मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग नहीं के बराबर हैं । विदेशी शब्दों का प्रयोग भी उनकी भाषा में नहीं मिलता 

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